हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है। और याचिकाकर्ता पर 50000 का जुर्माना लगा दिया है। जिसमें मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण से संबंधित मामलों की सुनवाई तटस्थ पीठ से कराए जाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि मामले में एक धारक ओबीसी समुदाय है। जिसे सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण से लाभ मिलना है। और दूसरी ओर अनारक्षित श्रेणी का वह समुदाय है। जिसे सार्वजनिक सेवाओं में ओबीसी आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% हो जाने से नुकसान होने वाला है। इन दोनों समुदायों के हित आपस में टकराते हैं। इसलिए इन समुदायों से संबंधित जजों को ओबीसी आरक्षण के मामले की सुनवाई से दूर रहना चाहिए। याचिकाकर्ता ने ओबीसी आरक्षण से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए एक तटस्थ पीठ की मांग की थी। जिसमें ना ओबीसी समुदाय से संबंधित जज हो और ना ही अनारक्षित वर्ग से संबंधित कोई जज हो। तटस्थ पीठ में एससी,एसटी और अल्पसंख्यक समुदाय के जज शामिल हो सकते हैं। क्योंकि ओबीसी आरक्षण से एससी, एसटी और अल्पसंख्यक समुदाय को न तो कोई लाभ होने वाला है। और ना ही कोई हानि होने वाली है। तटस्थ पीठ की मांग वाली याचिका पूर्व में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में दायर की गई थी। जिसे मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। जिसके बाद मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। जस्टिस हरिकेश रॉय और जस्टिस पंकज मित्तल की खंडपीठ ने याचिका को गलत मानते हुए याचिकाकर्ता पर 50000 का जुर्माना लगाते हुए याचिका को खारिज कर दिया। इस अवसर पर अदालत ने कहा हाईकोर्ट के आदेश में हमें यह कमी दिखती है कि उसने याचिकाकर्ता पर जुर्माना नहीं लगाया था। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में ओबीसी आरक्षण से संबंध रखने वाली लगभग 80 याचिकाएं लंबित हैं। इनमें से अधिकांश याचिकाएं राज्य सरकार के उस अध्यादेश को चुनौती देते हुए दायर की गई है। जिसमें 2019 में राज्य सरकार की नौकरियों और शिक्षा में ओबीसी कोटा 14% से बढ़ाकर 27% कर दिया गया था। जिससे राज्य में आरक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा से बढ़कर 70% हो गया है। हालांकि राज्य सरकार ने तर्क दिया है। कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से आरक्षण के संबंध में 50% की सीमा का बंधन समाप्त हो गया है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में तटस्थ पीठ की मांग वाली इंटरलॉक्यूटरी एप्लीकेशन की सुनवाई करते हुए जस्टिस शीलू नाग जस्टिस वीरेंद्र सिंह की खंडपीठ ने कहा था। कि आवेदन पीठ के सदस्यों के खिलाफ किसी व्यक्तिगत आरोप से संबंधित नहीं है। सिवाय इसके कि पीठ में अनारक्षित वर्ग के न्यायाधीश शामिल हैं। इसलिए इस मुद्दे पर न्याय करते समय तटस्थ नहीं रह सकते हैं। हाई कोर्ट की पीठ ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता किसी भी व्यक्तिगत पूर्वाग्रह को इंगित करने में असमर्थ थे। जिससे पीठ के सदस्यों को इस मुद्दे पर सुनवाई करने से स्वयं को अलग कर लेना चाहिए था। इस प्रकार मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए पीठ के सदस्यों में से किसी एक द्वारा भी सुनवाई से इंकार करना भय या पक्षपात, स्नेह और द्वेष के बिना न्याय प्रदान करने के लिए ली गई शपथ की अवहेलना होगी। हाईकोर्ट की खंडपीठ ने यह कहते हुए विशेष तटस्थ पीठ की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया था। कि तटस्थ पीठ बनाने की मांग करना मुख्य मुद्दे की कार्यवाही में देरी करने और अदालत को डराने धमकाने का प्रयास था। इसके साथ ही अदालत ने कहा था कि उल्लेखित उदाहरण वर्तमान मामले में प्रासंगिक नहीं थे। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की खंडपीठ ने मामले में पेश होने वाले वकील के संबंध में टिप्पणी करते हुए कहा था। कि इस तथ्य को सामने लाना अनुचित नहीं होगा कि याचिकाकर्ता की ओर से पेश होने वाला वकील 2 साल पहले इसी मुद्दे से संबंधित मामले में एक अन्य वादी के लिए पेश हुआ था। और अदालत कक्ष में लापरवाह आरोपों के लिए अवमानना के आरोपों का सामना करने के करीब पहुंच गया था। गौरतलब है हाईकोर्ट की खंडपीठ ने यह टिप्पणी अधिवक्ता उदय कुमार साहू के संबंध में की थी। वकील उदय कुमार साहू ने खचाखच भरे अदालत कक्ष में कॉलेजियम सिस्टम के भाई भतीजावाद और जातिवाद पर प्रहार करते हुए तीखी टिप्पणियां की थी। जिसके बाद वकील उदय कुमार साहू पर अदालत की अवमानना करने के आरोप लगाए गए थे।
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